Lekhika Ranchi

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कपाल कुंडला--बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय


:४: स्तूप-शिखर

‘....सविस्मये देखिया अदूरे भीषण-दर्शन मूर्ति।’
—मेघनाद वध।

जब नवकुमार की नींद खुली, तो उस समय भयानक रात थी। उन्हें आश्वर्य हुआ कि अभी तक उन्हें शेर-बाघ ने क्यों नहीं फाड़ खाया! वह इधर-उधर देखने लगे कि कहीं बाघ तो नहीं आता है। अकस्मात् बहुत दूर सामने उन्हें एक रोशनी-सी जलती दिखाई दी। कहीं भ्रम तो नहीं होता, यह सोच के नवकुमार अतीव मनोनिवेशपूर्वक उस तरफ देखने लगे। रोशनी की परिधि क्रमशः बढ़के और उज्ज्वलतर होने लगी। मालूम हुआ कि कहीं आग जल रही है। इसे देखते ही नवकुमार के हृदय में आशा का सञ्चार हो आया। कारण, मनुष्य के बिना यह अग्नि-ज्वलन सम्भव नहीं। नवकुमार उठकर खड़े हो गये। जिधर से अग्नि की रोशनी आ रही थी, वह उसी तरफ बढ़े। एक बार मन में सोचा—यह रोशनी कहीं भौतिक तो नहीं है....हो भी सकता है। किन्तु केवल डरकर बैठ रहने से ही कौन जीवन बचा सकता है? यह विचार करते हुए नवकुमार निर्भीक चित्त हो उस तरफ बढ़े। वृक्ष लता, बालुका स्तूप, पग-पगपर उनकी गति को रोकने लगे। नवकुमार वृक्ष, लताओं को दलते हुए और स्तूपों का लंघन करते हुए उस तरफ बढ़ने लगे। आलोक के समीप पहुँचकर नवकुमार ने देखा कि एक अति उच्च शिखर पर अग्नि जल रही है। उस अग्नि के प्रकाश में शिखर पर बैठी हुई मनुष्य मूर्ति आकाश पर चित्र की तरह दिखाई पड़ रही थी। नवकुमार ने संकल्प किया कि इस मनुष्य मूर्ति के निकट पहुँचकर देखना चाहिये और इसी उद्देश्य से वह उधर बढ़े। अन्त में वह उस स्तूप पर चढ़ने लगे। मन में एक अज्ञात आशंका अवश्य हुई; फिर भी, उसकी परवाह न कर नवकुमार आगे बढ़ने लगे। उस आसीन व्यक्ति के सामने पहुँचकर उन्होंने जो जो दृश्य देखा, उससे उनके शरीर के रोंगटे खड़े हो गये। वह यह निश्चय न कर सके कि बैठना चाहिये या भागना चाहिये।

शिखरासीन मनुष्य आँखें मूँदे हुए ध्यानमग्न बैठा था। पहले वह नवकुमार को देख न सका। नवकुमार ने देखा कि उसकी उम्र कोई पचीस वर्ष के लगभग होगी। यह न जान पड़ा कि उसकी देह पर कोई वस्त्र है या नहीं; फिर कमर से नीचे तक बाघम्बर पहने हुए थे। गले में रुद्राक्ष की माला लटक रही थी। सारा चेहरा दाढ़ी, मूँछ और कपालकी जटासे प्रायः ढँकासा था। सामने लकड़ी से आग जल रही थी; उसी अग्नि की रोशनी को देखकर नवकुमार वहाँ तक पहुँचे थे। लेकिन नवकुमार को एक तरह की भयानक बदबू आ रही थी। उस स्थान को मजे में देखते हुए नवकुमार इसका कारण ढूंढ़ने लगे। नवकुमार ने उस व्यक्ति के आसनकी तरफ देखा कि एक छिन्नमुण्ड गलित शव पर वह मनुष्य बैठा हुआ ध्यान मग्न है। और भी भयभीत दृष्टि से इन्होंने देखा कि पास में ही नरमुण्ड भी रखा हुआ है। खून की कालिमा अभी भी उसपर लगी हुई है। इसके अतिरिक्त उस स्थान के चारों तरफ हड्डियाँ बिखरी पड़ी हैं। यहाँ तक कि उस रुद्राक्ष-माला में भी बीच-बीच में हड्डियाँ पिरोई हुई हैं। यह सब देखकर नवकुमार मंत्रमुग्ध की तरह खड़े देखते रह गये। वह आगे बढ़ें या पीछे पलटकर भागें; कुछ भी समझ न सके। उन्होंने कापालि कों की बात सुनी थी। समझ गये कि यह व्यक्ति भयानक कापालिक ही है।

जिस समय नवकुमार यहाँ पहुँचे, उस समय यह कापालिक जप या ध्यान में मग्न था। नवकुमार को देखकर उसने भ्रूक्षेप भी नहीं किया। बहुत देर के बाद उसने पूछा—“कस्त्वम्?”
नवकुमार ने उत्तर दिया—“ब्राह्मण।”
कापालिक ने फिर कहा,—“विष्ठ।”
यह कहकर वह उसी प्रकार अपनी क्रिया में संलग्न रहा। नवकुमार भी बैठे नहीं, बल्कि खड़े ही रहे।

इस तरह कोई आधा प्रहर बीत गया। जपके अन्त में कापालिक ने आसन से खड़े होकर उसी तरह संस्कृत भाषा में कहा—“मेरे पीछे-पीछे चले आओ।”

यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि और कोई समय होता तो नवकुमार कभी इसके साथ न जाते। किन्तु इस समय उनके प्राण भूख और प्यास से कण्ठ में आ लगे थे, अतः उन्होंने कहा—“प्रभु की जैसी आज्ञा। लेकिन मैं भूख और प्यास से बहुत कातर हूँ, बताइये वहाँ जाने से मुझे आहारार्थ वस्तु मिलेगी?”

कापालिक ने कहा—“तुम भैरवी प्रेरित हो, मेरे साथ आओ; खाने को भोजन पाओगे।”

नवकुमार कापालिक के अनुगामी हुये। दोनों बहुत दूर तक साथ गये। राह में बन में कोई बात न हुई। अन्त में एक पर्णकुटीर मिली। कापालिक ने उसमें प्रवेश कर पीछे नवकुमार को आने का आदेश दिया। इसके उपरान्त कापालिक ने नवकुमार से अबोधगम्य तरकीब से एक लकड़ी जलाई। नवकुमार ने उस रोशनी में देखा कि झोपड़ी में चारों तरफ चटाई विछी हुई है और जगह-जगह व्याघ्र चर्म बिछे हैं। एक कलश में पानी और कुछ फल-फूल भी रखे हुए हैं।

कापालिक ने आग बालकर कहा—“फल-मूल जो कुछ है, खा सकते हो। पत्तों का दोना बनाकर पात्र से जल पी सकते हो। व्याघ्रचर्म बिछा हुआ है, सो सकते हो। निडर होकर रहो यहाँ शेर आदि का डर नहीं। फिर दूसरे समय मुझ से मुलाकात होगी। जब तक मुलाकात न हो, यह झोपड़ी त्यागकर कहीं न जाना।”

यह कहकर कापालिक चला गया। नवकुमार ने थोड़े फल खाये और कुछ कसैले स्वाद के उस जल को पिया। इतना आहार मिलते ही नवकुमार को परम सन्तोष हुआ। इसके बाद ही वह उस चर्मपर लेट रहे। सारे दिन की मेहनत और जागरण के कारण वह शीघ्र ही निद्रा की गोद में सो गये।

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